By – अमरपाल सिंह वर्मा
19 December 2024
राजस्थान की बेटी मधु चारण महिलाओं के प्रति सरकारी स्तर पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ लड़ रही है। राजस्थान में महिला के अधिकार (Women’s Rights In Rajasthan) के लिए मधु चारण का संघर्ष हाई कोर्ट से जीतने के बाद भी नहीं थमा है। राज्य सरकार की मंजूरी के बाद महिला एवं बाल विकास विभाग ने अविवाहितों के लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं सहायिकाओं की भर्ती की राह तो खोली, लेकिन उसमें शपथ पत्र की नई शर्त लगा दी है।
हाई कोर्ट से जीती पर नहीं थमी लड़ाई
हनुमानगढ़ (राजस्थान)। राजस्थान की एक बेटी मधु चारण महिलाओं के अधिकार (Women’s Rights In Rajasthan) पाने और सरकारी स्तर पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ लड़ रही है। कई दशकों से राजस्थान में अविवाहित महिलाओं को आंगनबाड़ी केन्द्रों मेंं कार्यकर्ता और सहायिका बनने से वंचित किया जा रहा था। महिला एवं बाल विकास विभाग ने इन पदों के लिए आवेदन कर्ता महिलाओं के विवाहित होना जरूरी होने की शर्त जरूरी कर रखी थी। अविवाहित महिलाएं इसके लिए आवेदन ही नहीं कर सकती थीं। मधु चारण ने इस भेदभाव के खिलाफ राजस्थान हाई कोर्ट में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और जीती, लेकिन सरकारी विभाग अभी भी शर्तें लगा रहा है।
बालोतरा जिले के गूगड़ी गांव में वर्ष 2019 में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की नियुक्ति के लिए आवेदन मांगे गए तो मधु ने भी आवेदन किया मगर उसे काम देने से यह कह कर इनकार कर दिया गया कि उसकी अभी शादी नहीं हुई है। इस पर मधु ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। करीब पांच साल चली कानूनी लड़ाई के बाद राजस्थान हाई कोर्ट ने 4 सितंबर 2023 को मधु के पक्ष में फैसला दिया।
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फैसले में हाई कोर्ट की यह टिप्पणी
हाई कोर्ट ने इस फैसले में महिलाओं के विवाहित होने की शर्त को अविवाहित महिला उम्मीदवारों के लिए अतार्किक और उनके अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए गैरकानूनी और असंवैधानिक करार दे दिया। हालांकि सरकार की ओर से हाई कोर्ट में यह तर्क दिया गया कि अविवाहित लडक़ी को आंगनबाड़ी केन्द्र मेंं नियुक्त कर दिया जाए तो विवाह के बाद वह कहीं और चली जाएगी, जिससे आंगनबाड़ी केंद्र का काम बाधित हो जाएगा। लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना। हाई कोर्ट ने फैसले मेंं कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘ राजस्थान सरकार ने अविवाहित महिला और विवाहित महिला के बीच भेदभाव का नया अध्याय शुरू किया है, जो अवैध और मनमाना है। सार्वजनिक रोजगार के लिए अविवाहित उम्मीदवार होने मात्र से उसे अपात्र मानना अतार्किक है। यह भेदभावपूर्ण है और संविधान के दिए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने की श्रेणी में आता है।’’
यूं नहीं कर पाया ICDS अपील
महिला एवं बाल विकास विभाग (ICDS) कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करना चाहता था, क्योंकि राजकीय अधिवक्ता ने अपील करने की सलाह दी थी। विभाग अपील कर भी देता, लेकिन उससे पहले यह मामला राज्य की उप मुख्यमंत्री दीया कुमारी के संज्ञान मेंं आ गया। उप मुख्यमंत्री ने हाई कोर्ट के आदेश की पालना कर अविवाहित महिलाओं को काम पर रखने के निर्देश दिए। इस पर सरकार ने 28 फरवरी 2024 को राज्य में अविवाहित महिलाओं को आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व सहायिका बनने के नियम एवं चयन शर्तों में संशोधन की मंजूरी दे दी।
फिर भी नहीं थमा संघर्ष
महिला एवं बाल विकास विभाग की ओर से चयन शर्तों में संशोधन कर दिया गया, जिससे आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका के पदों के लिए आवेदन करने के लिए सभी महिलाएं पात्र हो गईं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इस जीत के बावजूद मधु और उस जैसी हजारों महिलाओं का संघर्ष अभी भी थमा नहीं है। दरअसल, महिला एवं बाल विकास विभाग ने अविवाहित महिलाओं को कोर्ट के फैसले के तहत पात्र तो मान लिया, लेकिन एक नई शर्त लगा दी है। विभाग महिलाओं से एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कह रहा है, जिसमेंं लिखा गया है कि अगर भविष्य में विवाह अथवा अन्य कारण से महिला संबंधित गांव की निवासी नहीं रहेगी तो वह स्वत: ही मानदेय सेवा से इस्तीफा दे देगी और उसकी मानदेय सेवा समाप्त मानी जाएगी।
मधु बोली, संघर्ष जारी रखूंगी
अब महिला एवं बाल विकास विभाग कोर्ट के फैसले की पालना मेंं मधु को बतौर आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नियुक्ति देने को तैयार है, लेकिन उन्हें (मधु चारण को) उपरोक्तानुसार शपथ पत्र प्रस्तुत करने को कहा जा रहा है। मधु को यह शपथ पत्र देना मंजूर नहीं है। मधु का कहना है कि महिला एवं बाल विभाग का इरादा राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णय की पालना करने का प्रतीत नहीं होता है। इसलिए मुझे यह शपथ पत्र और इस पर हस्ताक्षर करना स्वीकार नहीं है। विभाग का रवैया महिला विरोधी है। मैं इसके खिलाफ संघर्ष जारी रखूंगी।
मधु ने लिखा पत्र, सरकार से सवाल
मधु चारण ने इस नई शर्त के बारे में राज्य सरकार एवं महिला एवं बाल विभाग से सवाल किया है। मधु ने विभाग को भेजे पत्र में कहा है कि जब किसी भी सरकारी विभाग में पुरुषों को मानदेय या संविदा पर काम देते समय ऐसी शर्त नहीं लगाई जाती है तो महिलाओं पर क्यों लगाई जा रही है? यह सवाल अकेली मधु का नहीं है, बल्कि राज्य की हजारों महिलाओं का है, जिन्हें कई सालों से सिर्फ इसलिए जॉब से वंचित किया जा रहा है कि उनका विवाह नहीं हुआ है। शपथ पत्र का प्रारूप एक तरह से नई शर्त लगाने जैसा है।
एकल महिलाओं की संख्या बड़ी
राजस्थान समेत देश में ऐसी एकल महिलाओं की तादाद बहुत बड़ी है, जो समाज की उपेक्षा और सामाजिक सांस्कृतिक कारणों से एकांकी जीवन बिता रही हैं। किसी परिस्थितिवश शादी न करने, बीमारी या विकलांगता के कारण विवाह न हो पाने आदि कारणों से अनेक महिलाएं अविवाहित जीवन बिताने पर मजबूर हैं। जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2001 से 2011 के बीच भारत मेंं एकल महिलाओं की संख्या में 30 फीसदी वृद्धि हुई है। भारत में 7 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने या तो शादी नहीं की या फिर तलाकशुदा, विधवा के रूप में जिंदगी बिता रही हैं। यह संख्या हमारे देश की आबादी का 12 फीसदी है।
उत्तर भारत में स्थिति ज्यादा खराब
राष्ट्रीय फोरम फॉर सिंगल वुमेन राइट्स (NFSWR) द्वारा राजस्थान समेत सात राज्यों में किए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों में एकल महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में एकल महिलाओं को लगातार सामाजिक पूर्वाग्रहों से जूझना पड़ता है और अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अकेली महिलाएं न केवल शारीरिक और वित्तीय असुरक्षा की शिकार होती हैं, बल्कि उन्हें अक्सर खुलेआम भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है।
महिलाओं की पहचान को पुरुषों से जोडऩा दुर्भाग्य
एकल महिलाओं का यह ऐसा वर्ग है, जो परिस्थितियों का शिकार है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में महिलाओं की पहचान को पुरुषों के साथ जोड़ दिया गया है। अकेली, अविवाहित रहने वाली महिलाओं को सकारात्मक रूप में नहीं देखा जाता है। अक्सर उनके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं। समाज में एकल महिला के प्रति जिस तरह का नकारात्मक माहौल है, वह एकल पुरुष के प्रति नजर नहीं आता है। एक ओर सरकारें एकल महिलाओं के कल्याण की योजनाएं चलाने के दावे करती हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें अविवाहित होने की वजह से जॉब से वंचित किया जा रहा है। मधु का संघर्ष ऐसे ही भेदभाव और अन्याय के खिलाफ है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व लाडली मीडिया फेलो हैं और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार और मत उनके अपने हैं। लाडली और यूएनएफपीए इन विचारों का अनिवार्य रूप से समर्थन नहीं करते हैं।)