By – साधना सोलंकी
06 October 2024
पठानी बोली-‘हादसे ने दोनों हाथ छीने हैं, हिम्मत नहीं’
बीकानेर की पठानी कहती है, हादसे ने दोनों हाथ छीने हैं, मेरी हिम्मत नहीं। मेरे लिए आनंददायक दिन वह होगा, जब मैं टीचर बनकर बच्चों को पढ़ाऊंगी। पहले माता-पिता दु:खी होते रहते थे। मेरी हालत देखकर रो भी पड़ते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
बीकानेर (राजस्थान)। बीकानेर की बहादुर बेटी पठानी की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणा से ओतप्रोत है, जो हाथ होते हुए भी कहते हैं, मुश्किल है जिंदगी…हार गए। पठानी तब मात्र 5 साल की थी, जब एक हादसे में उसके दोनों हाथ उससे बिछुड़ गए, लेकिन बहादुर पठानी कभी मायूस नहीं हुई। विपरीत परिस्थितियों में भी उसने ना सिर्फ रोजमर्रा के काम कटे हाथों से निपटाए, बल्कि शिक्षा की अलख से पठानी टीचर बनने के अपने सपने को साकार करने में जी-जान से जुटी है।
बीकानेर के छोटे से गांव लूणखां ढाणी निवासी मजूर सत्तार खां की पांच बेटियों में सबसे छोटी पठानी हादसे को याद करते हुए पॉजिटिव कनेक्ट को बताती हैं कि 16 साल पहले जब मैं मात्र 5 साल की थी। धोरों पर हम सब बच्चे खेलते थे। रेतीली माटी में लोटपोट होते, एक दूसरे पर रेत उछालते। पठानी कहती है कि रेगिस्तानी रेत बड़े कमाल की होती है। इससे कितना ही लिपटो…चिपटो, लोट लगाओ, यह चिपकती नहीं है। गांव के हम उम्र बच्चों के साथ धोरों पर दौडऩे की कोशिश में पांव धंस जाते तो बड़ा मजा आता। ताली पीटते व दौड़ते। ना जाने कब और कैसे धोरों से गुजरते बिजली के तारों ने मुझे पकड़ लिया और फिर मेरी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया, जिसमें मैं डूबती चली गई और बेहोश हो गई।
पॉजिटिव कनेक्ट से बातचीत में उदास होते हुए पठानी बताती है कि होश आया तो हाथ नहीं थे। अस्पताल के बिस्तर पर जब आंख खुली तो कोहनी से नीचे दोनों हाथों पर पट्टियां बंधी थी और मां रो रही थी। पिता ने छाती पर हाथ मार कहा, इस लाश को अब कैसे संभालेंगे…!
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शुरूआत में लाचारी पर आ जाता था रोना
पॉजिटिव कनेक्ट से बातचीत में पठानी बताती है, मैं अपने नाम को सार्थक करना चाहती थी। मैंने तय कर लिया कि हार नहीं मानूंगी, लेकिन फिर भी शुरूआत में मुझे अपनी लाचारी पर रोना आ जाता था। मैं धोरों पर जाती और लकड़ी को दोनों ठूंठ बने हाथों से पकडऩे की कोशिश करती। धीरे-धीरे रेत पर चित्र बनाती थी। हवा का झोंका आता तो चित्र मिट जाते और मैं फिर बनाने की कोशिश करती।
पठानी कहती है कि मां राजा खातून मेरे शौक को समझती थी। मेरी चोटी बनाते वह (मां) रोने लग जाती। मुझे हाथ से खाना खिलाती, कपड़े पहनाती और मैं सोचती आखिर मां कब तक मेरी मदद करेगी? मैं झाड़ू पकडकऱ सफाई करने का प्रयास करती और करती रहती। फिर मैं झाड़ू आराम से लगाने लगी। ऐसे ही आटा गूंध कर रोटी पोने (रोटी बनाने) लगी। नहाना-धोना जैसे रोजमर्रा के सारे काम करने लगी।
मेहंदी लगाने का शौक, दुआओं से सुकूनभरा अहसास
अपने शौक का जिक्र करते हुए 21 वर्षीय पठानी पॉजिटिव कनेक्ट को बताती है कि मुझे मेहंदी लगे हाथ-पांव बहुत लुभाते थे और फिर धीरे-धीरे मेहंदी लगाने का अभ्यास करने लगी। आज में मैं मेहंदी लगाने में पारंगत हूं और गांव के ही ही नहीं, बल्कि दूरदराज से भी महिलाएं मेहंदी लगवाने आती हैं। पठानी बताती है कि कोई कुछ नकदी दे देती है तो ले लेती हूं, अन्यथा मैं किसी से पैसे नहीं मांगती। कारण बताते हुए पठानी कहती है कि यह काम मैं शौक में करती हूं। यह मेरा पेशा नहीं है। इतना जरूर है कि मैंने अभी जितनी भी महिलाओं के हाथ-पांवों में मेहंदी लगाई है, उन सबने मेरे लिए भरपूर दुआएं अवश्य दी हैं। इससे मुझे काफी सुकूनभरा अहसास होता है। इन सब कामों में बीच मैं अपनी पढ़ाई भी करती रही।
बच्चे हंसते ही नहीं, मजाक भी बनाते
दो भाइयों की बहन पठानी पॉजिटिव कनेक्ट को बताती है कि मुझसे बड़ी चार बहनें हैं। वे नवीं कक्षा तक ही पढ़ पाईं। उन सब की शादियां हो गई, क्योंकि गांव में लड़कियों को ज्यादा नहीं पढ़ाया जाता, लेकिन मुझसे कौन विवाह करेगा? ऐसा सोच पिता ने मेरा दाखिला गांव के स्कूल में करवा दिया। शुरू में स्कूल के बच्चे मुझ पर हंसते और मजाक बनाते हुए कहते कि तेरे तो हाथ ही नहीं है, बिना हाथ कैसे पढ़ेगी? बिना हाथ की सुनना मुझे अंदर तक झकझोर देता और फिर मैंने इस वाक्य को ही अपना हथियार बना लिया। पठानी कहती है कि कंचन मेरी प्रिय सहेली है, जो सदा मेरा हौसला बढ़ाती रही। बस का सफर करते मैं अक्सर गिर जाती थी और जब उठती तो जिंदगी से मेरी लड़ाई और तेज हो जाती। मैंने अपने आंसुओं पर भी काबू पाना सीख लिया, क्योंकि रोने से जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं होता। मैंने पैदल चलने को प्राथमिकता दी। घर से पांच-छह किमी दूर स्कूल मैं पैदल ही आती जाती।
प्रथम श्रेणी में पास की 10वीं-12वीं
शिक्षक, परिजन और मैं बहुत खुश हुई, जब मैंने 10वीं व 12वीं की बोर्ड परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। पॉजिटिव कनेक्ट को उत्साहित पठानी कहती है कि उसे अपने माता-पिता, परिजनों पर गर्व है, जिनकी मदद से मैं जिंदगी जीना सीख पाई। पानी भरना, झाडू-बुहारू, खेत का काम, रसोई, मेंहदी मांडना जैसे काम अब मेरे लिए सहज हैं। गोल गप्पे भी बना लेती हूं। पठानी कहती है, जीना इसी का नाम है।
टीचर बनने का सपना है पठानी का
पठानी कहती है कि मेरा सपना अब टीचर बनने का है। प्रीबीएड कर चुकी हूं। टीचर बनने की परीक्षा के लिए घड़साना में कोचिंग कर रही हूं। मेरे जीवन के लिए वह दिन बहुत ही आनंददायक होगा, जब बच्चे बैठ कर मुझसे पढ़ेंगे…सवाल करेंगे। हंसना…खिलखिलाना होगा और मैं आगे…और आगे बढ़ती जाऊंगी। पठानी बताती है, पहले मां-बाप (माता-पिता) दु:खी होते रहते थे। मेरी हालत देखकर रो भी पड़ते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।